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गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण

मार्कण्डेय पुराण

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :294
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1196
आईएसबीएन :81-293-0153-9

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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...

रौच्य मनु की उत्पत्ति-कथा

मार्कण्डेयजी कहते हैं-ब्रह्मन् ! पूर्वकालकी बात है, प्रजापति रुचि ममता और अहङ्कारसे रहित इस पृथ्वीपर विचरते थे। उन्हें किसीसे भय नहीं था। वे बहुत कम सोते थे। उन्होंने न तो अग्निकी स्थापना की थी और न अपने लिये घर ही बना रखा था। वे एक बार भोजन करते और बिना आश्रमके ही रहते थे। उन्हें सब प्रकारकी आसक्तियोंसे रहित एवं मुनिवृत्तिसे रहते देख उनके पितरोंने उनसे कहा।

पितर बोले- बेटा! विवाह स्वर्ग और अपवर्गका हेतु* होनेके कारण एक पुण्यमय कार्य है; उसे तुमने क्यों नहीं किया? गृहस्थ पुरुष समस्त देवताओं, पितरों, ऋषियों और अतिथियोंकी पूजा पुण्यमय लोकोंको प्राप्त करता है। वह 'स्वाहा' के उच्चारणसे देवताओंको, 'स्वधा' करके पुण्यमय शब्दसे पितरोंको तथा अन्नदान (बलिवैश्वदेव) आदिसे भूत आदि प्राणियों एवं अतिथियोंको उनका भाग समर्पित करता है। बेटा! हम ऐसा मानते हैं कि गृहस्थ आश्रमको स्वीकार न करनेपर तुम्हें इस जीवनमें क्लेश-पर-क्लेश उठाना पड़ेगा तथा मृत्युके बाद और दूसरे जन्ममें भी क्लेश ही भोगने पड़ेंगे।
* अग्निहोत्र एवं यज्ञ-यागादि कर्ममें सपत्नीक गृहस्थका ही अधिकार है; ये कर्म निष्कामभावसे हों तो मोक्ष देनेवाले होते हैं और सकामभावसे किये जायँ तो स्वर्गादि फलोंके साधक होते हैं। जो उक्त कर्म करते हैं, उन्हींका विवाह स्वर्ग- अपवर्गका साधक है। जो विवाह करके गृहस्थोचित शुभ-कर्मोंका अनुष्ठान नहीं करते, उनके लिये तो विवाह-कर्म घोर बन्धनका ही कारण होता है।

रुचिने कहा-पितृगण! परिग्रहमात्र ही अत्यन्त दुःख एवं पापका कारण होता है तथा उससे मनुष्यकी अधोगति होती है, यही सोचकर मैंने पहले स्त्री-संग्रह नहीं किया। मन और इन्द्रियोंको नियन्त्रणमें रखकर जो यह आत्मसंयम किया जाता है, वह भी परिग्रह करनेपर मोक्षका साधक नहीं होता। ममतारूप कीचड़में सना हुआ होनेपर भी यह आत्मा जो परिग्रहशून्य चित्तरूपी जलसे प्रतिदिन धोया जाता है, वह श्रेष्ठ प्रयत्न है। जितेन्द्रिय विद्वानोंको चाहिये कि वे अनेक जन्मोंद्वारा सञ्चित कर्मरूपी पङ्कमें सने हुए आत्माका सद्वासनारूपी जलसे प्रक्षालन करें।

पितर बोले-बेटा! जितेन्द्रिय होकर आत्माका प्रक्षालन करना उचित ही है; किन्तु तुम जिसपर चल रहे हो, वह मोक्षका मार्ग है। किन्तु फलेच्छारहित दान और शुभाशुभके उपभोगसे भी पूर्वकृत अशुभ कर्म दूर होता है। इसी प्रकार दयाभावसे प्रेरित होकर जो कर्म किया जाता है, वह बन्धनकारक नहीं होता। फल-कामनासे रहित कर्म भी बन्धनमें नहीं डालता। पूर्वजन्ममें किया हुआ मानवोंका शुभाशुभ कर्म सुख- दु:खमय भोगोंके रूपमें प्रतिदिन भोगनेपर ही क्षीण होता है। इस प्रकार विद्वान् पुरुष आत्माका प्रक्षालन करते और उसकी बन्धनोंसे रक्षा करते हैं। ऐसा करनेसे वह अविवेकके कारण पापरूपी कीचड़में नहीं फँसता।

१-परन्तु दानैरशुभं नुद्यतेऽनभिसंहितैः।
फलैस्तथोपभोगैश्च पूर्वकर्मशुभाशुभैः ॥
एवं न बन्धो भवति कुर्वतः करुणात्मकम्।
न बन्धाय तत्कर्म भवत्यनभिसंहितम्॥
पूर्वकर्म कृतं भोगैः क्षीयतेऽहर्निशं तथा।
सुखदुःखात्मकैर्वत्स पुण्यापुण्यात्मकं नृणाम्॥
(९५। १४-१६)

रुचिने पूछा- पितामहो! वेदमें कर्ममार्गको अविद्या कहा गया है, फिर क्यों आपलोग मुझे उस मार्गमें लगाते हैं?

पितर बोले- यह सत्य है कि कर्मको अविद्या ही कहा गया है, इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है। फिर भी इतना तो निश्चित है कि उस विद्याकी प्राप्तिमें कर्म ही कारण है। विहित कर्मका पालन न करके जो अधम मनुष्य संयम करते हैं, वह संयम अन्तमें मोक्षकी प्राप्ति नहीं कराता; अपितु अधोगतिमें ले जानेवाला होता है। वत्स! तुम तो समझते हो कि मैं आत्माका प्रक्षालन करता हूँ; किन्तु वास्तवमें तुम शास्त्रविहित कर्मोंके न करनेके कारण पापोंसे दग्ध हो रहे हो! कर्म अविद्या होनेपर भी विधिके पालनद्वारा शोधे हुए विष की भाँति मनुष्योंका उपकार करनेवाला ही होता है। इसके विपरीत वह विद्या भी विधिकी अवहेलनासे निश्चय ही हमारे बन्धनका कारण बन जाती है। अतः वत्स! तुम विधिपूर्वक स्त्री-संग्रह करो। ऐसा न हो कि इस लोक का लाभ न मिलनेके कारण तुम्हारा जन्म निष्फल हो जाय।

२-प्रक्षालयामीति भवान् वत्सात्मानं तु मन्यते।
विहिताकरणोद्भूतैः पापैस्त्वं तुविदह्यसे॥
अविद्याप्युपकाराय विषवज्जायते नृणाम्।
अनुष्ठिताभ्युपायेन बन्धायान्यापि नो हि सा॥
(९५। २१-२२)

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    अनुक्रम

  1. वपु को दुर्वासा का श्राप
  2. सुकृष मुनि के पुत्रों के पक्षी की योनि में जन्म लेने का कारण
  3. धर्मपक्षी द्वारा जैमिनि के प्रश्नों का उत्तर
  4. राजा हरिश्चन्द्र का चरित्र
  5. पिता-पुत्र-संवादका आरम्भ, जीवकी मृत्यु तथा नरक-गति का वर्णन
  6. जीवके जन्म का वृत्तान्त तथा महारौरव आदि नरकों का वर्णन
  7. जनक-यमदूत-संवाद, भिन्न-भिन्न पापों से विभिन्न नरकों की प्राप्ति का वर्णन
  8. पापोंके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियोंकी प्राप्ति तथा विपश्चित् के पुण्यदान से पापियों का उद्धार
  9. दत्तात्रेयजी के जन्म-प्रसङ्ग में एक पतिव्रता ब्राह्मणी तथा अनसूया जी का चरित्र
  10. दत्तात्रेयजी के जन्म और प्रभाव की कथा
  11. अलर्कोपाख्यान का आरम्भ - नागकुमारों के द्वारा ऋतध्वज के पूर्ववृत्तान्त का वर्णन
  12. पातालकेतु का वध और मदालसा के साथ ऋतध्वज का विवाह
  13. तालकेतु के कपट से मरी हुई मदालसा की नागराज के फण से उत्पत्ति और ऋतध्वज का पाताललोक गमन
  14. ऋतध्वज को मदालसा की प्राप्ति, बाल्यकाल में अपने पुत्रों को मदालसा का उपदेश
  15. मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
  16. मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
  17. श्राद्ध-कर्म का वर्णन
  18. श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
  19. त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
  20. सुबाहु की प्रेरणासे काशिराज का अलर्क पर आक्रमण, अलर्क का दत्तात्रेयजी की शरण में जाना और उनसे योग का उपदेश लेना
  21. योगके विघ्न, उनसे बचनेके उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य तथा योगीकी मुक्ति
  22. योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना
  23. अलर्क की मुक्ति एवं पिता-पुत्र के संवाद का उपसंहार
  24. मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
  25. एक ही परमात्माके त्रिविध रूप, ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान तथा सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन
  26. प्रजा की सृष्टि, निवास-स्थान, जीविका के उपाय और वर्णाश्रम-धर्म के पालन का माहात्म्य
  27. स्वायम्भुव मनुकी वंश-परम्परा तथा अलक्ष्मी-पुत्र दुःसह के स्थान आदि का वर्णन
  28. दुःसह की सन्तानों द्वारा होनेवाले विघ्न और उनकी शान्ति के उपाय
  29. जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
  30. श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
  31. भारतवर्ष में भगवान् कूर्म की स्थिति का वर्णन
  32. भद्राश्व आदि वर्षोंका संक्षिप्त वर्णन
  33. स्वरोचिष् तथा स्वारोचिष मनुके जन्म एवं चरित्रका वर्णन
  34. पद्मिनी विद्याके अधीन रहनेवाली आठ निधियोंका वर्णन
  35. राजा उत्तम का चरित्र तथा औत्तम मन्वन्तर का वर्णन
  36. तामस मनुकी उत्पत्ति तथा मन्वन्तरका वर्णन
  37. रैवत मनुकी उत्पत्ति और उनके मन्वन्तरका वर्णन
  38. चाक्षुष मनु की उत्पत्ति और उनके मन्वन्तर का वर्णन
  39. वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्वन्तर का संक्षिप्त परिचय
  40. सावर्णि मनुकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें देवी-माहात्म्य
  41. मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना
  42. देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध
  43. सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
  44. इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
  45. देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना
  46. धूम्रलोचन-वध
  47. चण्ड और मुण्ड का वध
  48. रक्तबीज-वध
  49. निशुम्भ-वध
  50. शुम्भ-वध
  51. देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान
  52. देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
  53. सुरथ और वैश्यको देवीका वरदान
  54. नवें से लेकर तेरहवें मन्वन्तर तक का संक्षिप्त वर्णन
  55. रौच्य मनु की उत्पत्ति-कथा
  56. भौत्य मन्वन्तर की कथा तथा चौदह मन्वन्तरों के श्रवण का फल
  57. सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
  58. अदितिके गर्भसे भगवान् सूर्यका अवतार
  59. सूर्यकी महिमाके प्रसङ्गमें राजा राज्यवर्धनकी कथा
  60. दिष्टपुत्र नाभागका चरित्र
  61. वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
  62. राजा खनित्रकी कथा
  63. क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
  64. राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
  65. श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य

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